दो शब्द

शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष और छन्द ये छः अङ्ग वेद के माने जाते हैं, आजकल प्रत्येक वेद के अलग-अलग केवल कल्प (सूत्र) उपलब्ध हैं और उन-उन शाखाओं के वैदिक ब्राह्मण उन्हें पढ़ते हैं। शेष पाँच अङ्ग सभी वेदों के अध्ययन करने वालों के एक ही हैं। वेदाङ्गों के पठन-पाठन का प्रचार केवल ऋग्वेदियों में देखा जाता है। अन्य वेदों के अध्ययन करने वालों में इनका प्रचार-प्रसार बहुत कम है।

उपरिलिखित वेद के छः अङ्गों में ज्योतिष का ग्रन्थ जिसे आजकल वैदिक ब्राह्मण धार्मिक दृष्टि से पाठ करते हैं। वे छत्तीस श्लोकात्मक हैं, एक और भी वेदाङ्ग ज्योतिष नाम का ग्रन्थ उपलब्ध है जिसपर सोमाकर की टीका है। सोमाकर द्वारा की गई टीका के अन्त में शेषकृत यजुर्वेदाङ्ग ज्योतिष जैसे कुछ शब्द लिखे हैं। इन दोनों ग्रन्थों में कुछ पाठान्तर हैं।

उपरिलिखित दोनों के अतिरिक्त एक तीसरा वेदाङ्ग ज्योतिष अथर्व ज्योतिष के नाम से प्रसिद्ध है।

इस प्रकार वेदांग ज्योतिष के नाम से तीन ग्रन्थ माने जा सकते हैं। पहला- ऋग्वेदाङ्गज्योतिष, दूसरा- यजुर्वेदाङ्गज्योतिष और तीसरा अथर्ववेदाङ्गज्योतिष। जिसका पाठ ऋग्वेदी किया करते हैं वह ऋग्वेदज्योतिष, जिसका पाठ यजुर्वेदी किया करते हैं वह यजुर्वेद ज्योतिष और अर्थववेद ज्योतिष इन दोनों से सर्वथा भिन्न है। सामवेद ज्योतिष नाम का कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि सामवेद और अथर्ववेद दोनों के लिए अथर्ववेद ज्योतिष नाम का ग्रन्थ ही है। ऋग्वेद ज्योतिष और यजुर्वेद ज्योतिष में लगभग साठ-सत्तर प्रतिशत साम्य है। तीस से चालीस प्रतिशत श्लोकों में भिन्नता है।

टीकाकार सोमाकर के काल के विषय में पता नहीं चल पाया है। जितना मैंने अध्ययन किया है उसमें सोमाकर का नाम किसी अन्य ग्रन्थ में या किसी टीका में नहीं मिला। सोमाकर की दो विस्तृत टीकाएँ हैं- एक बृहत् टीका है और दूसरी सङ्क्षिप्त टीका है। विस्तृत टीका के आदि में उनका उल्लेख है और अन्त में शेषकृत वेदाङ्ग ज्योतिष समाप्त ऐसा लिखा है। सोमाकर की दूसरी टीका पहली टीका का ही एक संक्षिप्त रूप प्रतीत होता है, उसमें आदि में सोमाकर का उल्लेख भी है और अन्त में शेषकृत पद भी नहीं है।

सोमाकर की टीका में कोई विशेष विचार नहीं किया गया है। कुछ श्लोक सरल हैं, उनके अर्थ सोमाकर ने लिखे और कुछ श्लोकों के अर्थ कठिन हैं, उन्हें छोड़ दिए।

ज्योतिष शास्त्र के अन्य विद्वानों ने भी वेदाङ्गज्योतिष के विषय में विचार नहीं किया, यह एक अलग प्रकार का ग्रन्थ है, इसलिए अन्य ग्रन्थों में भी इसका सन्दर्भ नहीं देखा गया। प्राचीन होने के कारण ज्योतिष शास्त्र के इतिहास की दृष्टि से वेदाङ्गज्योतिष का विचार अत्यन्त महत्वपूर्ण है।

प्रोफेसर थीबो ने ज्योतिष शास्त्र पर विचार करने के समय वेदाङ्गज्योतिष को महत्व दिया और उनका अंग्रेजी अनुवाद किया। सामान्य रूप से यह 1879-80 की घटना है। प्रोफेसर थीबो ने अपने अंग्रेजी अनुवाद में सोमाकर से अधिक लोगों की ज्योतिष शास्त्र की दृष्टि से व्याख्या लिखी। शङ्करवालकृषण दीक्षित के अनुसार कैलाशवासी कृष्णशास्त्री गोडबोले ने भी इसकी व्याख्या लिखने का प्रयास किया था, लेकिन सोमाकर और प्रोफेसर थीबो के द्वारा लिखी गई व्याख्या के अतिरिक्त उन्होंने अधिक श्लोकों की व्याख्या नहीं की। कैलाशवासी जनार्दन बालाजी मोडक ने भी 1825 ईस्वी में ऋग् ज्योतिष और यजुर्वेद ज्योतिष का मराठी अनुवाद कर प्रकाशित करवाया। उन्होंने उपरिलिखित विद्वानों द्वारा की गई व्याख्याओं के अतिरिक्त भी कुछ विचार प्रस्तुत किये और उसके बाद शङ्करवालकृष्ण दीक्षित जी ने सात-आठ अधिक श्लोकों की व्याख्या की।

सन् 1993-94 में मैंने स्वयं सम्पूर्ण वेदाङ्गज्योतिष की समीक्षा Vedang Astronomoy के नाम से ICPR और ISCHR के संयुक्त परियोजना के तहत लिखी, जो हिस्ट्री ऑफ इण्डियन साइंस और फिलासफी वाल्यूम में प्रकाशित हुआ। आजकल वेदाध्यायी ब्राह्मण केवल ऋग्वेद ज्योतिष का पाठ वेदाङ्गज्योतिष के रूप में करते हैं। यजुर्वेदाङ्गज्योतिष का और अथर्ववेदाङ्गज्योतिष का पाठ वेदाङ्ग के रूप में करने की परम्परा का पता नहीं चल पा रहा है। इस समय वेदाङ्गज्योतिष के रूप में इस ग्रन्थ का पाठ वेदाध्यायी ब्राह्मण किया करते हैं। उनके श्लोक अर्थ की दृष्टि से कुछ स्थानों पर अशुद्ध प्रतीत होते हैं, लेकिन ऐसा होते हुए भी प्रायः सभी प्रान्तों में पाठान्तर उपलब्ध नहीं होते हैं। अन्य किसी भी वेदाङ्ग की ऐसी स्थिति नहीं है। ऐतिहासिक दृष्टि से इस पर विचार करने की आवश्यकता है। मैंने स्वयं इनके श्लोकों पर विचार करने का प्रयास किया है, लेकिन अभी तक पूर्ण सङ्गति नहीं बैठ पायी।

वेदाङ्गों में व्याकरण के आचार्य पाणिनि‍ और छन्द शास्त्र के पिङ्गल हैं। उसी प्रकार वेदाङ्गज्योतिष के आचार्य लगध भी हैं। जैसे- अष्टाध्यायी आरम्भ करने से पहले श्लोक में पाणिनी की वन्दना है, वैसे ही वेदाङ्गज्योतिष में कालज्ञानं प्रवक्ष्यामि लगधस्य महात्मनः लिखा है। पाश्चात्य विद्वान् लगध को लगढ और कोई कोई लाट भी कहते हैं। लगढ के विषय में कुछ कहना तो कठिन है, लेकिन लगढ को लाट कहना काल की दृष्टि से सर्वथा अनुचित है, क्योंकि लाट का समय इस्वी सन् के बाद 5वीं शताब्दी है। ऋग्वेदाङ्ग ज्योतिष में पञ्चवर्षात्मक युग के पाँचों संवत्सरों के नामों का उल्लेख न होना आश्चर्य की बात है। लेकिन सोमाकर ने आठवें श्लोक की व्याख्या में गर्ग के वचन का उल्लेख किया है। जिसमें पञ्चसंवत्सरात्मक युग का थोड़ा वर्णन है। वराहमिहिर ने बृहत्संहिता में संवत्सरों के नाम और उनके अधिपति लिखे हैं, जो गर्ग के द्वारा लिखे हुए अधिपतियों से कुछ भिन्न हैं। गर्ग ने इद्वत्सर का स्वामी मृत्यु को माना है। जबकि वराह मिहिर ने इद्वत्सर का स्वामी रुद्र को माना है।

करण ग्रन्थों के प्रारम्भ में जैसे सर्वप्रथम अहर्गण साधन करते हैं, उसी प्रकार यहाँ पर्वगण साधन किया गया है। इसमें दो पर्व बराबर एक चान्द्रमास माना गया है और इन चान्द्रमासों के बाद एक अधिमास की बात कही गई है।

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प्रो. सर्वनारायण झा